बुधवार, 30 सितंबर 2009

दो समानांतर यात्राएं

बहुत सरल है इस प्रश्न का उत्तर की कला क्या है ? मनुष्य की भावनाओ की अभिव्यक्ति का नाम कला है \ मनुष्य की प्रसन्नता ,उसका शोक ,उसकी करुणा ,उसका आक्रोश उसका प्रेम- वैराग्य वे तमाम सम्भावनाये चाहे जिस भी माध्यम से व्यक्त हो ,कला कह सकते है हम उसे \ जब वह तूलिका व् रंगों के माध्यम से व्यक्त हो तो वह चित्रकला बन जाती है \ जब वह छैनी- हथौडी लेकर पत्थर को तराशने लगे तो वह मूर्तिकला बन जाती है \ जब मनुष्य का शरीर स्वरताल में बिखरने लगे तो वह नृत्य बन जाता है \ जब वह शब्दों के सस्वर पाठ में मुखरित होने लगे तो वह संगीत बन जाता है \ यो कला के रूप भिन्न-भिन्न होने लगे है परन्तु उसकी आत्मा का मूल स्वर एक ही होता है , मनुष्य के भावों की अभिव्यक्ति \ इस अभिव्यक्ति के लिए सर्जक जो भी माध्यम तलाशता है वह एक अर्थ में भौतिकता से आध्यात्मिकता की यात्रा का ही पर्याय है \ कला के इन मायनों में अगर कुंवर रवीन्द्र (के. रवीन्द्र) के कृतित्व की पड़ताल करें तो भी एक मोटी बात तो प्रथम दृष्टया समझ आती है की अपने स्वरुप में प्रतीकात्मक रहते हुए रवीन्द्र ने कविता हो या रेखांकन ,केंद्र में मनुष्य की भावनिष्ठ अन्भूतियो की बहुरंगी दुनिया को ही रचा है \

मुझ जैसे बहुत से पाठक रहे होंगे जिनका भ्रम कवि और रेखांकनकार - चित्रकार को अलग -अलग स्तर पर पहचानने को लेकर रहा हो \ पर यह सच है की अभिव्यक्ति के दोनों ही माध्यमो में रवीन्द्र की रचनात्मक साधना का बहुत परिष्कृत ,परिपक्व और आत्मीय रूप प्राप्त होता है \ रवीन्द्र रेखांकन गढ़ते हुए भी किसी कविता को रचते होंगे और कविता को शब्द-शब्द पिरोते हुए भी वे एक रेखांकन से गुजरते होंगे ,यानी दो समानांतर यात्राओ के अनुभव को हम रवीन्द्र की कला कह सकते है \ यह तथ्य रवीन्द्र के रेखांकनों और कविताओ को आमने- सामने रख कर भली तरह परखा जा सकता है \ मनुष्य की दी हुई दुनिया के यथार्थ और विसंगतियों- विद्रूपों से उपजती रिएक्शन को रवीन्द्र शायद बासी होना नहीं देना चाहते \ संवेदना की उस तीव्रता को वे कविता या रेखाओ में तुरत -फुरत कैद कर लेने में कोई चूक नहीं करते होंगे \अनुशासन चाहे रेखाओ का हो या कविता का उसमें अंतर्निहित भाव-छंद संवेदनायो को समृध्य ,अनुभव क्षेत्र को गहरा, तथा सोच के क्षितिज को विस्तृत बनता है \ अपनी कला -रचना नें वे स्वयं जितने रसिक होते होंगे, पाठक -दर्शक भी कमोबेश उसी रसानुभूति से रूबरू होते होंगे \ रवीन्द्र के पास इस रचाव के लिए कोई शास्त्र होगा ,या कोई निश्चित मानक अथवा उपकरण होंगें ऐसा मानना गलती होगी \ शायद रवीन्द्र कला की अंतरनिर्भरता से गुजरते अपने इजहार को सामर्थ्य भर ये दो रूप देते होंगे \ कभी शब्दों के बिना ,रेखाओ की गतियों में ये संवेग संस्कार पाते है तो कभी शब्दों की ओर से कविता की शक्ल में आकर इन्हे राहत मिलती है \ सच तो यह है की दोनों ही स्थितियों में हमारा मन एक संप्रेषण से भर उठता है जो हमें भरपूर आश्वस्त करता है, संतुष्ट करता है \ कह सकते है की रेखांकन और कविता दोनों में रवीन्द्र की भावुकता का वजन समान और हमारे लिए समरस होने की त्रुष्टि से भरपूर है\

रवीन्द्र की कला और कविता को गति और जीवन से भरपूर एक प्रवाह कहें तो अत्युक्ति नहीं\ वे रेखाओ में जहाँ एक ओर प्रकृति और मनुष्य को जोड़ने की प्रक्रिया में आये अंग -प्रत्यंग,विक्षेप ,भंगिमा ,मोड़ तथा वक्र किसी किसी गूढ़ प्रतीकों की भाव की अभिव्यन्जना करते है तो दूसरी ओर कविता में शब्दों के इस्तेमाल करने का कौशल पाठक की मनुष्य की दुनिया के गहवर में डूबने- उतराने का सहारा बनता है \ रवीन्द्र अपनी कला में मानवीय जीवन के सच की पड़ताल करने को बेचैन नजर आते है \ बिम्बों के जरिये समझाने की हर - संभव कोशिश करते है \ यह छटपटाहट रवीन्द्र की 'आदमी' शीर्षक कविता से साफ नजर आती है --

“आजकल मैं /
एक ही बिम्ब में /
सब कुछ देखता हूँ /
एक ही बिम्ब में ऊंट और पहाड़ को /
समुद्र और तालाब को /
मगर आदमी /
मेरे बिम्बों से बाहर छिटक जाता है /
पता नहीं क्यों /
आदमी बिम्ब में समा नहीं पता है ?”


क्या रवीन्द्र की 'शहर ' कविता का टुकडा आपके मन में एक रेखांकन ,एक चित्र गढ़ता नहीं चलता -–

"इस शहर में /
एक घर /
जहाँ मै ठहर गया हूँ /
रहस्य में लिपटा सा /
फिर भी पहचाना सा /
और घर में /
एक छज्जा /
छज्जे पर मै /
सामने एक घर,फिर दो घर,ढेर सारे घर /
घर /
घर /
घर पर घर /
पतझर में बिखरे पत्तो की तरह /"


प्रतीकों का कितना सटीक इस्तेमाल की एक नजर में कविता आँखों से होकर मन तक पहुंचती है --

"कितने खूब सूरत लगते है हम /
एक कैलेण्डर की तरह /
जड़े हुए दीवार से /
या फिर कुत्ते की तरह /
अपनी दुम खुजलाने के प्रयास में /
गोल -गोल /
बस एक ही दायरे में घुमते हुए /"


दरअसल अपनी रचना में रवीन्द्र भारतीय जीवन मूल्यों की पुरजोर वकालत करते है \ वे षड्यंत्रों पर ,आक्रमणों पर अभिव्यक्ति भर प्रहार करते है \उन प्रवृतियों पर उनकी रेखाओ का वलय साक्षात् होता है जिनके वर्चस्व में ईमानदार हाशिये पर चला गया है \अपने जीते - जी बदल गयी दुनिया के सच को रवीन्द्र के चित्र और कविता बखूबी बयाँ करते है \ माँ -पिता ,बहन, दोस्त ,फूल बागीचे, नदी , किनारा ,रिश्ते -नाते ,महल झोपडी , संसद , रवीन्द्र के सोच में आते है \ कभी इस सोच के रवीन्द्र रेखांकन गढ़ते है , कभी हम उन्हें कविता में पढ़ते है \ रवीन्द्र की तूलिका और कलम का गीलापन शाश्वत रहे - यह कामना है \

--विनय उपाध्याय
कला समीक्षक ,कवि
संपादक -कला समय भोपाल














रवीन्द्र के चित्रों की सांकेतिकता प्रशंसनीय अनूठी है|
-आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, उज्जैन
समीक्षक










रवीन्द्र की इन रेखाओं में इस युग का यथार्थ अपनी संपूर्ण चेतना के साथ विद्यमान है | गजब का संतुलन और अन्तः संगीत वाह !
-कैलाश मंण्डलेकर
व्यंगकार

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

रेखाएं बोलती हैं

के. रवीन्द्र के रेखांकनों में मानवीय संवेदनाएं बात करती सुनाई देती हैं | रेखाओं के क्षितिज -पर से जीवन कीआकृतियाँ झांकती हैं | आकृतियाँ मनुष्य की हैं | प्रकृति की हैं | प्रकृति के भीतर जड़-चेतन की समेट इनमे है| जीवन अपनी सीमाओं में असीम उदभावनाएं लिए इतिहास पथ निर्मित करता चलता है | इतिहास के मायने यहाँअपने समय के मनुष्य की हार- जीत की स्तितियों से है | इन चित्रों में आदमी मौन दिखाई देता है, लेकिन वहसमय की भाषा बोल रहा है | दूसरे शब्दों में इन आकृतियों ने आदमी के मौनमय संघर्ष को काल के स्तर पर वाणीदी है | ये रेखा- आकार अपने भीतर बहुत कुछ छिपाए हुए सब कुछ सच -सच उजागर करते हैं | काल कीनिरन्तरता के तट पर विश्राम -घाट बनाते हैं, जहाँ बैठकर कुछ विचारणीय उपजता है | विचार और रेखाएंकहीं-कहीं एकमेव हो जाती हैं | जीवन-जगत प्रतिबिंबित हो उठता है | हम अपना ही चेहरा सामने पाने लगते हैंअपना ही हास हमें गुदगुदाता है | अपने ही आसुओं का खारापन और गर्माहट हमें और आगे बढ़ने की आद्रता देते हैंतब ये रेखांकन पुतरिया नही लगते | हम अपना ही वजूद इनमे तलाशने - पाने लगते हैं |

तुलसी कहते है -'सून्य भीती पर रंग चित्र नहीं ,तनु बिनु लिखा चितेरे ,यह बात दार्शनिक होते हुए भी ,इसमेवर्तमान चित्रकला के सूत्र आकार लेते दिखाई देते है अमूर्त कला की शाब्दिक व्याख्या की ध्वन्यात्मकता इस पदसे सुनी जा सकती है रवीन्द्र ने अपने रेखांकनों में अमूर्त का टंटा खडा करके उसके ध्वनि संसार को पाने कीकोशिश की है जिसे कहा जा सकता है कि रेखाए बोलती है रेखाए मनुष्य के कर्म को रेखांकित करती है उसके कर्मसे निपजे ललित को प्रसार देती है उसके सौन्दर्य को नदी किनारे के छतनार पेड़ की फुनगी पर बैठाती है ये रेखाएमनुष्य की जिजीविषा को चिडिया की परवाज देती है एक निस्सीम आकाश छोटी सी चिडिया नाजुक से पावंकोमल सर पंख ,और धरती की गोलाई तथा आकाश की गहरी नापने की अदम्य ,अथक अनवरत उडान रेखाएकागज पर खींची लकीरे मात्र रहकर चैतन्य बन जाती है कोई हंसता, बोलता, गाता, रोता, दौड़ता झाई मारनेलगता है कला की दुनिया में दस्तक सुनाई देने लगती है

रवीन्द्र के चित्र हल्लाबोल की तर्ज पर धमाल नही मचाते |हंगामा खडा नहीं करते |मशाल नहीं थामते| बल्किशालीनता से रेखाओ की भाषा में आदमी का सुख दुःख कहते है |ये जीवन के दर्द को रेखाओ में प्रवाहित कर उसेताकत में तब्दील करते है |दर्द को उकेरने मात्र से समस्या का हल नहीं है ,हल इसमें है की दर्द पर आदमी अपनीविजय हासिल कर ले या दर्द देने वाले का मस्तक कुचल दे |ये रेखांकन दर्द पर विजय हासिल करने वाले रेखाशिखर है |इस प्रक्रिया में रवीन्द्र को रेखाओ की भीड़ नहीं जुटानी पडती |रेखाओ और नर-मुंडो का जंगल नहीं खडाकरना पड़ता |एक ठूठ और उस पर बैठी चिडिया का चित्र इसके लिए वे पर्याप्त समझते है | विभीषिका के बीच मेंजीवन के बचाव का रेखांकन उनके पास अँधेरे में हथेली पर रखे दीपक की तरह सुरक्षित है |उनके ऐसे चित्रों मेंगरमी की धू-धू जलती शाम की बखत दूर पहाडियों पर बजती बांसुरी सुनाई देती है |यह बांसुरी सुख की नहीं हैव्यक्ति की टूटी आस्था और बिखरी क्षमता को अगोरने का स्वर है |व्यक्ति की जूझ और उसमे जीवन की अनटूटीलय दोनों समानांतर रेखांकित होती है|

मनुष्य का संघर्ष और सौंदर्य इन चित्रों में कहीं-कहीं एक साथ उभरा है |पत्थरों के ढेर पर जमती जडें और पूरे कदमें खडा पेड़ तथा पेड़ को छूने और बचाने की हुलस लिए बढ़ता हाथ इस सौंदर्य उर्जा और संघर्ष क्षमता को आँख देतेहै |दूसरी और दुसरे का हाथ भी ही जो पत्थरों के ढेर को बड़ा कर रहा है |पत्थर जमा रहा है|पत्थरों के बीच धंसतीजड़े और आकाश की हथेली पर कोंपल तथा फूलों के रंग भरने वाले वृक्ष की कुहक को मौसम देने वाला यहचित्रकार है |खिड़की का खुला होना,उस पर टिका हाथ और हाथ पर टिका सिर मनुष्य की स्वतंत्रता और विवशताकी अनथक कहानी बांचता है |रवीन्द्र मजबूर करते है नियति और कर्म के बीच खड़े आदमी की स्थिती पर सोचनेतथा उससे उबारने के सन्दर्भ में |रवीन्द्र चित्र में संकेत देते है की जड़ विहीन व्यक्ति भविष्य का उजड़ा पथ हीनिर्मित करेगा |यहाँ तक की जड़ रहते हुए भी तने से पेड़ को काटना और आदमी को उसकी प्रकृति में जिन्दा देखनाचाहता है |मनुष्य को पानी डालने सरीखा है |यह उवा चित्रकार मनुष्य को उसकी प्रकृति में जिन्दा देखना चाहता हैमनुष्य को मनुष्यता सहित पाना चाहता है |पांवो पर रखे शिथिल हाथ ,गठरी बना शरीर और कंधे पर जीवन कीआशा- आकांक्षाओ तथा कर्म से रस -रस उडान के लिए आतुर बैठी चिडिया का चित्र रात के गर्भ में दूर कहीं भोरको आमंत्रण देता है |

रवीन्द्र चौकस है ,धरती के बचाव के प्रति | वह चिंतित है,बिगड़ते पर्यावरण के सम्बन्ध में |उनके चित्र के पास एकहरी टहनी है |आकाश में उडती चिडिया है ,और दूर तक आकाश की नीलिमा को भेदती दृष्टी है | आदमी और प्रकृतिके प्रति बेखबर होती प्रवित्ति के विरोध में वे हम सबको खबरदार करते है | ओद्योगिक और व्यवसाय युग में जीवितसांसों को शुद्ध हवा के लाले पड़ रहे है मशीनों के बीच दबती सुबक और दुखती छाती की कहानी को चित्रकार आकरदेता है यहाँ उसकी रेखाए शब्दों के अर्थो से अधिक गहरे और व्यापक अर्थ धारण कर जमाने के सामने आती हैनारी की कहानी और उसकी सामाजिक स्थिति रवीन्द्र से छुपी नहीं है |नारी का उपयोग उनका चित्रकार मनुष्यकी पशुता को तथा उसकी आदिम भूख को उजागर करने के लिए नहीं करता है , बल्कि नारी को उसके सम्पूर्णसामाजिक महत्त्व और दाय के साथ महिमा मंडित करता है |नारी के विवशता के अनेक चित्रों में रेखाए पाई जातीहै |लेकिन इनमे कहीं भी मांसलता है और ही व्यावसायिकता |यह चित्रकार की कूची की पवित्र झिरप का धोतक है |

रवीन्द्र के चित्र कहीं-कहीं एक ही अनटूटी रेखा में आकार ले लेते है | कहीं-कहीं रेखाओ के अन्त्गुरम्फ्न आकृतिबनाते है | बीच-बीच में स्याही का भराव भी पुष्टता और पृष्ठभूमि के ठोसपन के लिए कर लेते है |चित्र में मनुष्य कोया अपेक्षित वस्तु को रेखांकन के माध्यम से बना देने के बाद वे परिवेश को छोटी-छोटी गोल-गोल रेखाओ से भरतेहै | जो अन्यंत्र चित्रों में देखने को कम मिलती है |कहीं एक ही रेखा से पूरा चित्र बना देते है बाकी फलक कोरा रहताहै | अनंत सृष्ठि और उसके बीच निपट खडा मनुष्य |बाकी फलक कोरा रहता है |ज्यादातर चित्र मूर्त है | बात करतेहै | आदमी की कहानी आदमी से रेखाओ की चौपाल पर बैठकर सुनाते है |इस चित्रकार में दूर तक आगे जाने कीसम्भावनाये है|

मै रेखांकनों का शास्त्र नहीं जानता |


डॉ. श्रीराम परिहार
अगहन सुदी
संवत २०५३

शनिवार, 26 सितंबर 2009

दंगा और दंगे के बाद (१९९३)

गहरी संवेदना |
कला का नाम ही है
ध्वंस के खिलाफ खड़े होना |
इन चित्रों की सार्थकता ही यही है की
ये मनुष्य को मनुष्यता के लिए पुकार रहे है |
कई चित्रों में नई तकनीक प्रतीक मार्मिक |

-डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय
नाटककार , आलोचक










कबूतर
की चोंच में छुरा है
कबूतर आकाश की छाती पर है
आदमी घुटनों में मुंह छिपाए
बैठ गया है हार कर जैसे
यह अखबार की कोई खबर नहीं है
विधानसभा में गूंजता कोई सवाल
एक अदद रेखाकार की बेसाख्ता जुबान है
बेहद सफ़ेद से कागजों पर
सभ्यता की कलंक गाथा कहती हुई

-
डॉ. विजय बहादुर सिंह
कवि, आलोचक