रविवार, 13 नवंबर 2011

क्रांति

बीच  चौराहे  में पहुँच
उसने
अपना एक हाथ
ऊपर उठाया
फिर
पीछे मुड कर देखा
दो - चार और लोगों ने
अपने - अपने हाथ ऊपर उठा दिए
और
और क्रांति हो गयी
वह मुस्कुराया थोडा आगे बढ़ा
फिर
फिर उसने
अपने दोनों हाथ ऊपर उठाये
कुछ और लोगों ने अपने - अपने हाथ
ऊपर उठाये
कुछ ने एक कुछ ने दोनों
 क्रांति चरम पर पहुँची
वह खुशी से चीख पड़ा
उत्तेजना नस -नस में  उछाल मारने लगी 
वह दौड़ने लगा
तेज दौड़ने लगा
भीड़ उसके पीछे दौड़ने लगी
वह रुका
भीड़ भी रुक गयी
वह फिर दौड़ने लगा
चारो तरफ हाथ उठाये
भीड़ अचकचाई
भीड़ में शामिल लोगों नें एक दुसरे को देखा
 इकट्ठे हुए
उसे घेरा और मार डाला
एक और क्रांति हुई
राष्ट्र में शांती व्यवस्था कायम हो गयी
और सारी व्यवस्थाएं  पटरी पर
आम आदमी थियेटर से
बाहर निकला
रात सर्दी  जादा थी
बिस्तर में दुबक कर सो गया

रविवार, 6 नवंबर 2011

मेरा गाँव

 बहुत पहले
जब है पहुंचा था
अपने गाँव
धुल उड़ाती राज्य परिवन की बस से
जो चबीस घंटे में केवल एक बार गाँव आती थी
 बड़े - बड़े धूल के बादल साथ लेकर
 सारे गाँव के बच्चे इकठ्ठे हो
 बस को कम मुझे देखने कौतुहल वस् पहुँचते थे
 बहूत ......पहले

शाम सारा गाँव जुड़ता चौपाल पर
 मेरे साथ आई शहर की 
तकलीफें दुःख - दर्द बाँट लेने
 और मै हल्का हो जाता

काफी दिनों बाद उस दिन फिर
अपने गाँव पहुंचा , अपनी कार से
किसी बच्चे को फुर्सत नहीं थी
कि मेरी कार या मुझे देखने आये
मै ढूंढता रहा ढेकुर के खम्भे
जिससे मै गाँव में दिशा पहचान लेता था
फलां का घर फलां की बारी [ बगीचा ]
शाम टिऊब लाइट  की चकाचौंध में
भटकता
मुश्किल से पंहुंचा था चौपाल तक
इक्छा थी बुजुर्गों से मेल मुलाकात की
मगर चौपाल पर कुछ आवारा पगुराते ढोरों,
सोते कुत्तों के आलावा कोई नहीं था
हाँ एक कोने में ज़रूर
कोई दारू के नशे में गाली बकता पड़ा था
शांति और अपनत्व की तलाश में गया  था

दारू और टी.व्ही. पी गयी आदमी को
आदमी के आदमियत को
आज शो पीस की तरह
सिर्फ कल्पनाओं में रह गया है मेरा  गाँव
या फिर कमरे में  लटके कैलेण्डर में

अब जब भी याद आता है गाँव
या
जब भी उकता जाता हूँ शहर से
 तारीखों के बहाने
देख लेता हूँ गाँव कैलेण्डर में
मिट्टी के मटके में पानी भर कर लाती  युवती
लम्बे बालों वाली ढोर चराती भोली खूबसूरत लड़की
जो कभी शैंपू  , पाउडर- क्रीम नहीं लगातीं
न ही फैशन  परेड में जाती
खेतों में निदाई करते लोग
जो नहीं जानते शटर्दे- सन्डे
शब्दों और तारों विहीन  रिश्ते
अपनत्व के रेशे - रेशे से छाई गयी झोपड़ियाँ 
हाँ यही था मेरा गाँव
जो अब
कैलेण्डर में हर महीनें अलग - अलग रंगों में
मेरे कमरे में टंगा हुआ है
जहाँ बहुत पहले पहुंचा था मै
 

" भूपेन हजारिका "
















देखा है तुमने
हरित  लबादा ओढ़े
जलती हुई धरती पर
गर्मियों में लू  के थपेड़े खाते
 पलाश का जंगल
जैसे दुर्दिनों में भी
रच रहा हो सपनें
देखा है तुमनें
बड़े घनघोर जंगल जब
नंगे खड़े कोसते रहते है
आसमान को
तब मुस्कुराता हुआ पलाश  ही
पहुंचता है  धरती को ठंडक  
मगर आदमी ?
पलाश नहीं है आदमी
वह दुर्दिनों में हो जाता है
नंगा जंगल
ढूंढता रहता है छाँव का एक टुकड़ा
माथे पर रखे हाथ
या ताकता रहता है आसमान
तब
तब कहीं एक आदमी
हाँ कहीं एक
भूपेन हजारिका
हो जाता है पलाश
जो ताकता नहीं आसमान
ढूंढता नहीं छाँव का टुकड़ा
केवल हो जाता है पलाश
दुर्दिनों में भी चतुर्दिक तोड़ता हुआ सन्नाटा
और शांति फैलता हुआ
दुश्चिंताओं से मुक्त
पलाश की तरह
जिसने बचा रखा है
जंगल और जंगल का नंगा पन