मंगलवार, 22 मार्च 2011

समकालीन कला में संप्रेष्नीयता


           भारतीय चित्रकला के परिपेक्ष में  समकालीन साहित्य की अपेक्षा समकालीन कला में संप्रेष्नीयता का प्रश्न कुछ अधिक गंभीर और
महत्वपूर्ण भी है . आज कला विशेष तौर पर चित्रकला कंदराओं से निकल हर भले ही ड्राईंग रूम और पांचतारा होटलों की लाबियों तक पहुँच गयी हो, परन्तु जहाँ तक मेरा  विचार है कला की शैलियों में विकृति के साथ-साथ उसकी संप्रेष्नीयता में भी कमी आई है . शताब्दियों पूर्व चित्रों के खरीददार या संग्रहकर्ता दस में से दो ही लोग हुआ करते थे  और वे दो लोग जो धनाढ्य हुआ करते थे या फिर कला को संरक्षण देने वाले लोग होते थे . आज  भले ही चित्र खरीदने व संग्रह करने वालों की संख्या दो से पाँच हो गयी हो परन्तु कला को समझाने वाले अभी भी दस में से दो ही हैं शेष चित्रों को केवल इसलिएखरीदते है या आर्ट गैलरियों में दर्शक बन कर भीड़ बढ़ाते है कि अन्यजनों की अपेक्षा वे विशिष्ट दिखें या फिर इसलिए खरीदते हैं कि पेंटिंग्स केवल धनाढ्यों के पास होती है , अर्थात नव धनाढ्य केवल दिखावे के लिए पेंटिंग्स में अपनी रूचि दिखलाते हैं कला की समझ बहुधा उनके पास कम होती है . 
                         कला में यदि केवल चित्रकला को ही विशेष रूप से लेकर देखें तो उसमें भी कई विधाएं है ,सीधी सपाट दृष्टि से केवल देखें तो अमूर्त चित्रकला जो बिम्बों, प्रतीकों पर आधारित होती है दूसरी तरफ फाइन आर्ट या डाइरेक्ट आर्ट जिसे कल्पना के आधार पर या सम्मुख देख कर आकारों को हू-ब-हू  संजोया जाता है ,चित्रित किया जाता है . यह कोई थ्योरीटिकल दृष्टि से नहीं वरन एक सामान्य दृष्टि से कह रहा हूँ . ऐसे चित्र  जो देखने में तो अति सुन्दर लगते हैं पर कोई सन्देश नहीं देते न ही कोई विचार पैदा करते हालाँकि प्रथम दृष्टि में वे आम दर्शक को आकर्षित भी करते  है ,लुभाते  है .  
                         समकालीन कला जिनमें प्रतीक बिम्ब होते हैं उनमें संप्रेष्नीयता एक विशेष वर्ग तक ही सीमित होकर रह जाती है यह कला या कलाकार का दोष नहीं है वरन शैली का दोष है , पृष्ट भूमि में उस विचार का दोष है जो रचना प्रक्रिया @ दौरान होता है, जिसकी वज़ह से रची गयी रचना को हम देर तक स्मृति में नहीं रख पाते. यह भी जरूरी नहीं है कि सारे चित्र सम्प्रेषण तत्व से विहीन है यदि शैली स्थूल न होते हुए भी ठोस विचारों , सिद्ध्यांतो पर आधारित है तो निःसंदेह वह अपना प्रभाव छोडती है . दरअसल  कोई भी कला मानव चेतना से जुडी होनी चाहिए, समकालीन चित्र मानवीय सोच या चेतना से कटे हुए हैं , बल्कि शैली अपनाने के फेर में केवल पश्यचात्य  शैली ही नहीं भारतीय सोच को छोड़ कर पश्चिमी विचार तक हमने ओढ़ लिए हैं . खाल ओढ़ लेने से न तो हम भेडिया ही हो पाए न रह गए सियार और शायद इसीलिये समकालीन चित्र सम्प्रेश्नीय नहीं हैं .
                                    कला में मनुष्य की संस्कृति ,सभ्यता, विचार युगबोध के साथ उभरते है चाहे वह लोक कला हो या पांचतारा होटलों में कैद कला हो . आज चित्रकला में सम्प्रेश्नीयता की कमी निःसंदेह आई है परन्तु इसका दोषी पूर्णतः कलाकार नहीं है उसका दोष केवल इतना है कि वह भारतीय लोकधारा से हट कर सोचता है , रचता है. वह ज़मीन छोड़ चुका है . जमीन और लोक का अर्थ गाँव या कस्बा नहीं है जमीन का अर्थ पूरा भारतीय समाज है चाहे वह किसी भी जाति ,धर्म,सम्प्रदाय, संख्या या वर्ग का हो से है यदि कलाकार उससे हट कर रचेगा तो उस रचना में सम्प्रेश्नीयता नहीं होगी और सम्प्रेश्नियता नहीं होगी तो कला लोकप्रिय नहीं होगी उसके लिए कलाकार को ज़मीन से जुड़ना होगा ,अपनी रचना को सम्प्रेश्नीय बनाना होगा .