मेरे हाथों से छूट कर
दूर उड़ गयी थी वह तितली
मगर अब तक
उसके पंखों के नीले,सुनहरे काले रंग
मेरी उँगलियों में चिपके हुए हैं
मै रोज ताकता हूँ उन्हें
और उस बागीचे को
यादों में ढूढता रहता हूँ
जहाँ मैंने उसे पकड़ा था
चुपके से
रातरानी की झाड़ी के पास
लुकाछिपी खेलते हुए
तब मै पूरा का पूरा
मीठी खुशबू से भर गया था
लिसलिसा सा गया था मै
मेरी उँगलियाँ भी
उसके पंखों का रंग लिए
आज भी कभी-कभी
लिसलिसा जाता हूँ मै
खुशबू से भर जाता हूँ मै
आज भी
रविवार, 20 दिसंबर 2009
शनिवार, 19 दिसंबर 2009
जहरीली होती जा रही है
आस्थाएँ
टूटते जा रहे हैं
सपनों के बंध
संगीनों के साये में
सायं -सायं करता जंगल
गाँव की सरहदें
सिमट कर रह गयी हैं
दरवाजों तक
घर का कोना-कोना
तरस रहा है
उजाले का एक टुकडा
बस्
छू भर लेने के लिए
नष्ट-भ्रष्ट
आदम विचारों की बंदूकें
भावनाओं के काँधे से
दागती हैं गोलियां
धुप में झुलसीं
सिसकती-हांफती हवाएं
अवसादों से सराबोर
साल वृक्ष
दे नहीं पाते छावं का एक टुकडा
सारा जंगल
बस्
सायं-सायं
भायं-भायं
ठायं-ठायं
बस्
बहुत हुआ
रौशन कर दो झरोखों को
शायद
पगडंडी नजर आने लगे
--के.रवींद्र
सब कुछ वैसा का वैसा
मेरे घर में सब कुछ सहेजा हुआ है अब तक
खिडकियों में तुम्हारी शक्ल
दरवाज़ों पर पांव
आँगन में खिलखिलाहट
कमरों में तुम्हारी गंध
बिस्तरों पर तुम्हारी छुअन
अब तक चिपकी हुई है
दीवारों पर तुम्हारी मुस्कुराहट
सब कुछ वैसा का वैसा
आले में हिदायतें
आलमारियों में ढेर सारी यादें
करीने से जमी हुई हैं
कैलेण्डर पर बीते दिनों का हिसाब
सबकुछ वैसा का वैसा
पर हाँ कहीं तस्वीर नहीं हैं
खिडकियों में तुम्हारी शक्ल
दरवाज़ों पर पांव
आँगन में खिलखिलाहट
कमरों में तुम्हारी गंध
बिस्तरों पर तुम्हारी छुअन
अब तक चिपकी हुई है
दीवारों पर तुम्हारी मुस्कुराहट
सब कुछ वैसा का वैसा
आले में हिदायतें
आलमारियों में ढेर सारी यादें
करीने से जमी हुई हैं
कैलेण्डर पर बीते दिनों का हिसाब
सबकुछ वैसा का वैसा
पर हाँ कहीं तस्वीर नहीं हैं
सोमवार, 14 दिसंबर 2009
कानून और व्यवस्था
एक दिन
मैनें बारिश की
गुमसुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई
कानूनी रोजनामचे में
दुसरे दिन सुबह
मेरा घर बाढ़ में बह गया
मैंने ललकारा
गाँव में फ़ैली खामोशी को
छलनी कर दिया गया मेरा पूरा जिस्म
गोलियों से
यह कानून की व्यवस्था
या व्यवस्था का कानून है
मै नहीं समझ पाया
कानून और व्यवस्था
मगर तय है
जिसकी जड़े मजबूत हैं
बाढ़ भी नहीं बहा सकती उन्हें
जो छातियाँ पहले से छलनी हों
उन्हें और छलनी नहीं किया जा सकता
और
हाँ और
खामोशियों की भी जुबान होती है
कान होते हैं ,नाक होती है
होते हैं हाथ पैर
एक दिन
हाँ, किसी एक दिन
जब खडी हो जायेंगी खामोशियाँ
चीखती हुई
उठाये हुए हाथ
तब
और तब
छलनी होगी कानून की छाती
बह जायेगी खामोशी की बाढ़ में
सारी व्यवस्था
एक दिन
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