सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

एक चिडिया ,

बटोर रही तिनके ।

रचेगी कहीं ,

किसी पेड़ पर

एक घरोंदा ,

फ़िर होंगे चूँ ...चूँ ...करते बच्चे ।

........ .........

चिडिया :

पेड़ कहाँ हैं ?

--के रवीन्द्र
एक चिड़िया

छोटी सी

थकी हरी

भूखी और प्यासी भी

चिंतित,

ढूंढ रही है

छाव का एक टुकडा

पहले

उसकी इन सारी चिन्ताओ की,

जिम्मेदारी उठाता था जंगल

..... ...... ......,

चिड़िया:

कहाँ है जंगल

--के रवीन्द्र

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

झरोखों से झांकते
थके हारे चेहरे
उल्लास का कफन ओढे
सड़कों पर डोलते लोग
गलियों और कूचों में
उजाले के सामने
चीटियों की तरह बुजबुजाते हुए लोग
पस्त हौसलों से
दूसरों की करते हौसलाफजाई,
कहाँ जा रहे हैं ?
शायद प्रगति चक्र है
लौट रहे हैं लोग
फ़िर बर्बर पशुता की ओर,
एक पांव आगे
फ़िर पीछे का पांव आगे
आगे का पांव पीछे
;
यही तो क्रम है /
--के रवीन्द्र
मेरी छाती पर फैल गया है
मरुस्थल
कानो में गर्म सीसे सा उतर गया है
शहरों का शोर,
काश कोई आता
रख देता सीने पर
जंगल का एक टुकडा
कानों में नदियों के कलकल का फाहा /
पोर-पोर के जाम हो गए हैं
बेरिंग्स
रख देता कोई स्नेह का मलहम /
जीने के लिए तो जी रहे हैं
किसी तरह
नपुंसक होकर,
दावों का भात पकेगा,
लगता नहीं /
राजनैतिक शराब का नशा
बढ़ रहा है दिनों- दिन
काश कोई आता
डुबो देता इस पोत को /
-- के रवीन्द्र

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

कला दीर्घा से

जिस तरह हमारा परिवेश और उससे उपजी अनुभूतियाँ बहुरंगी है, उसी तरह अभिव्यक्ति की तड़प तरंग दैध्र्यो पर सुनी जा सकती है, जिन्होंने तुलिका को अभिव्यक्ति का साधन चुना है वे इस सच्चाई से बार -बार रूबरू होते रहते है की 'ऑब्जेक्ट' से अधिक 'रिफ्लेक्ट ' का महत्व है |जिन कलाकारों को अपनी कला के जरिये साधारण चीजों के असाधारण पहलू उद् घाटित करने में सफलता हासिल हो पाती है , उन्ही में से एक है कुँअर रवीन्द्र |

ग्रामीण परिवेश से शहरी उलझाव तक की दुर्गम यात्रा पार करके मनुष्यता के सच तक पहुँचने की लालसा रखने वाला यह फनकार चित्रकला के प्रायः सभी पहलुओं को स्पर्श कर चुका है | आजादी के बाद सिर्फ पैदा हो कर, बल्कि पल -बढ़ कर संस्कार पाई हुई पीढी का कुँअर रवीन्द्र सटीक प्रतिनिधित्व करते है, जिसने वर्तमान और अतीत को श्वास और निश्वास की तरह अपनी कला में साधने की कोशिश की है |

अमूर्त की ओर विशिष्ट आग्रह रखने वाला उभर कर बिखरता हुआ यह कलाकार उसी इन्हेरेंटकन्ट्राडिक्शन का शिकार है जो प्रकारान्तर से पूरे समाज को मथ रहा है | इसी अर्थ में रवीन्द्र की कला समकालीन प्रवित्तियो और सोच को ईमानदारी से प्रतिविम्बित करती है | रवीन्द्र के पेस्टल रंग वर्णनीय विषय के माकूल है | जैसे कर्मरत ग्रामीण दम्पत्ति को चित्रित करते हुए ,उन्होंने चटक रंगों के प्रति ग्रामीण रुझान को स्पस्ट किया है| शायद यही वजह है की अमूर्त होते हुए भी उनका चित्रांकन बोलता हुआ-सा लगता है | रवीन्द्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी सुपुष्ट रेखाए है , जो किसी मेहनती किसान या मजदूर की 'मसल्स ' की तरह अपनी कहानी खुद कहती है | भावनाओ के उद्वेग और अनभूतियो के उद् दाम प्रवाह का गहराई सेचित्रण करती हुई कुँअर रवीन्द्र की रेखाए आने वाले दशकों में अभिव्यक्ति के चमत्कारों का आश्वासन जरूर देती है , बशर्ते उनकी साधना निष्कम्प और अनवरत रूप से जरी रहे |

अशोक चतुर्वेदी
कथाकार


कुँअर रवीन्द्र में इर्द -गिर्द की चीजों और उनके अन्तर्सम्बन्धों में गहरे पैठने की प्रवृत्ति परिलक्षित होती हैकृत्रिमता से परहेज बरतने वाले कुँअर की रूचि जीवंत यथार्थ में है और वह इसी यथार्थ को श्वेत -श्याम रेखाओं में उकेरने का जतन अत्यन्त तन्मयता और लगन से करते हैउनके कई रेखांकन तो शौक है और नही आदतरेखांकन उनके लिए मानसिक विक्षोभों की सहज अभिव्यक्ति है और इनकी अभिव्यक्ति का दायरा उतना ही बडा सघन है , जितना आसपास की लौकिक घटनायों का प्रभाव लोक

कुँअर रवीन्द्र अमूर्त चित्रों के चितेरे हैवह पूछते है :-आख़िर हम फाइन पेंटिंग क्यों करें ? उनका तर्क है की यह काम तो आधुनिक युग में कैमरा बखूबी कर सकता है ,और फ़िर औरत या पुरूष के शारीरिक सौन्दर्य का कला में क्या मूल्य हैकुँअर इस सोच ,विचार और कल्पना को चित्रित व्यक्त करना चाहते है ,जो कैमरे की मशीनी आँख से छूट जाती है या कैमरा जिसे पकड़ नहीं पता

कुँअर को अभी एक लम्बी और सार्थक यात्रा तय करनी हैकला यात्रा की खूबी यह होती है की यह यात्रा कभी ख़त्म नहीं होतीहर पड़ाव उपलब्धी आगे की यात्रा का बायस होते है

सुधीर सक्सेना
कवि ,पत्रकार