रविवार, 18 अक्तूबर 2009

मेरी छाती पर फैल गया है
मरुस्थल
कानो में गर्म सीसे सा उतर गया है
शहरों का शोर,
काश कोई आता
रख देता सीने पर
जंगल का एक टुकडा
कानों में नदियों के कलकल का फाहा /
पोर-पोर के जाम हो गए हैं
बेरिंग्स
रख देता कोई स्नेह का मलहम /
जीने के लिए तो जी रहे हैं
किसी तरह
नपुंसक होकर,
दावों का भात पकेगा,
लगता नहीं /
राजनैतिक शराब का नशा
बढ़ रहा है दिनों- दिन
काश कोई आता
डुबो देता इस पोत को /
-- के रवीन्द्र

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