बुधवार, 21 अप्रैल 2010

बस्तर -एक

झुलसी इच्छाएं
स्वप्नों का लेप कब तक सम्हाले ?
तोड़ गया कोई
संवादों के सम्बन्ध भी

अनुभव के हाथों में महुए के गंध से
उभरे फफोले
फूट गये
बनिये की तराजू में आकर

तेंदू के पत्तों में
धूप की गर्मी
धुआं -धुआं कर गई सरकारी दावों को

कंधों की ऊँचाई हो गई समतल
बांधों को बांध कर
पपीहा लगाता रहा लगातार प्यास की टेर
छातियों का ढूध सूख कर थैलियों में हो गया बंद ,

रोता है फगुना चुल्लू भर पानी को
खेलती है फुगड़ी दुखिया की नोनी[छोरी]
करना है कल आग का श्रुंगार उसे,
दहेज की देवी मांगती है पुजाई
और उतारेगा भूत तब
बैगा पीकर उतारा

तमाशे का डमरू बज गया कहीं
टोपियाँ बदलने का खेल देखेगी दुनिया
कुर्सी में टांगे होती है कितनी-
जानता नहीं बुधवा
उसकी तो दुनिया सिमट आती है तब ,
जब निकलती है तिरिया
जूडे में खोंसे गेंदे का फूल

तेंदू का पत्ता महुए का फूल ,
तुम्बे में सल्फी ,चावल का पेज
थक गया सूरज चढ़ते-उतरते,
बदली न आस्थाएं
बदली न आवश्यकताएँ
पीटते रहो तुम ढिंढोरा प्रगति का

1 टिप्पणी:

  1. शब्दों की कमी महसूस कर रहा हूं ..............." उत्कृष्ट" इससे अधिक कुछ कहना फ़िलहाल कठिन है .......... आभार स्वीकारें

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