रविवार, 25 अप्रैल 2010

चेहरा


मेरे चेहरे का 
कोई शरीर नहीं है 
न हाथ,न पैर 
न ही पेट 
केवल चेहरा है.
अन्दर से खोखला

पूरी तरह 
संवेदनाओं से,सोच से,विचार से 
पूरी तरह खोखला.


मगर मेरा चेहरा सजग है 
उन संवेदनाओं के लिए 
जो उससे जुडी है 
उन सोच व् विचारों से 
जिनमें उसका स्वार्थ हो 
उन चिंताओं के लिए 
जिससे उसका अपना सरोकार हो.


उसे ज़रुरत नहीं पडती 
हाथों की,पैरों की,
न ही पेट की
उसे ज़रुरत है केवल चेहरे की 
चेहरे को चेहरा बनाये रखने के लिए 
इसलिए 
वह केवल एक चेहरा है 
उसका कोई शरीर नहीं.

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

बस्तर- दो

कब तक करवट लिए
मुंह ढांपे पड़े रहेंगे लोग

आज रात फिर
दरवाजे पर दस्तक हुई
आज रात फिर
कोई परिंदा चीखा
पीपल पर बसेरा किये
सा s s s रे बगुले उड़ गए
बस्ती अँधेरे में सिमट गयी

टकटकी लगाये थक चुके हैं
इस बस्ती में सुबह नहीं होती
रातें होती है
दस्तक भरी
भूल कर भी
सुबह कभी आई भी
तो बस्ती में
जलती मिलीं चिताएं
दरवाजों पर लटके हुए
आश्वासनों के थैले

कब तक
कबतक करवट लिए
मुंह ढांपे पड़े रहेंगे लोग

बस्तर -एक

झुलसी इच्छाएं
स्वप्नों का लेप कब तक सम्हाले ?
तोड़ गया कोई
संवादों के सम्बन्ध भी

अनुभव के हाथों में महुए के गंध से
उभरे फफोले
फूट गये
बनिये की तराजू में आकर

तेंदू के पत्तों में
धूप की गर्मी
धुआं -धुआं कर गई सरकारी दावों को

कंधों की ऊँचाई हो गई समतल
बांधों को बांध कर
पपीहा लगाता रहा लगातार प्यास की टेर
छातियों का ढूध सूख कर थैलियों में हो गया बंद ,

रोता है फगुना चुल्लू भर पानी को
खेलती है फुगड़ी दुखिया की नोनी[छोरी]
करना है कल आग का श्रुंगार उसे,
दहेज की देवी मांगती है पुजाई
और उतारेगा भूत तब
बैगा पीकर उतारा

तमाशे का डमरू बज गया कहीं
टोपियाँ बदलने का खेल देखेगी दुनिया
कुर्सी में टांगे होती है कितनी-
जानता नहीं बुधवा
उसकी तो दुनिया सिमट आती है तब ,
जब निकलती है तिरिया
जूडे में खोंसे गेंदे का फूल

तेंदू का पत्ता महुए का फूल ,
तुम्बे में सल्फी ,चावल का पेज
थक गया सूरज चढ़ते-उतरते,
बदली न आस्थाएं
बदली न आवश्यकताएँ
पीटते रहो तुम ढिंढोरा प्रगति का