बुधवार, 21 अप्रैल 2010

बस्तर- दो

कब तक करवट लिए
मुंह ढांपे पड़े रहेंगे लोग

आज रात फिर
दरवाजे पर दस्तक हुई
आज रात फिर
कोई परिंदा चीखा
पीपल पर बसेरा किये
सा s s s रे बगुले उड़ गए
बस्ती अँधेरे में सिमट गयी

टकटकी लगाये थक चुके हैं
इस बस्ती में सुबह नहीं होती
रातें होती है
दस्तक भरी
भूल कर भी
सुबह कभी आई भी
तो बस्ती में
जलती मिलीं चिताएं
दरवाजों पर लटके हुए
आश्वासनों के थैले

कब तक
कबतक करवट लिए
मुंह ढांपे पड़े रहेंगे लोग

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