रविवार, 6 नवंबर 2011

मेरा गाँव

 बहुत पहले
जब है पहुंचा था
अपने गाँव
धुल उड़ाती राज्य परिवन की बस से
जो चबीस घंटे में केवल एक बार गाँव आती थी
 बड़े - बड़े धूल के बादल साथ लेकर
 सारे गाँव के बच्चे इकठ्ठे हो
 बस को कम मुझे देखने कौतुहल वस् पहुँचते थे
 बहूत ......पहले

शाम सारा गाँव जुड़ता चौपाल पर
 मेरे साथ आई शहर की 
तकलीफें दुःख - दर्द बाँट लेने
 और मै हल्का हो जाता

काफी दिनों बाद उस दिन फिर
अपने गाँव पहुंचा , अपनी कार से
किसी बच्चे को फुर्सत नहीं थी
कि मेरी कार या मुझे देखने आये
मै ढूंढता रहा ढेकुर के खम्भे
जिससे मै गाँव में दिशा पहचान लेता था
फलां का घर फलां की बारी [ बगीचा ]
शाम टिऊब लाइट  की चकाचौंध में
भटकता
मुश्किल से पंहुंचा था चौपाल तक
इक्छा थी बुजुर्गों से मेल मुलाकात की
मगर चौपाल पर कुछ आवारा पगुराते ढोरों,
सोते कुत्तों के आलावा कोई नहीं था
हाँ एक कोने में ज़रूर
कोई दारू के नशे में गाली बकता पड़ा था
शांति और अपनत्व की तलाश में गया  था

दारू और टी.व्ही. पी गयी आदमी को
आदमी के आदमियत को
आज शो पीस की तरह
सिर्फ कल्पनाओं में रह गया है मेरा  गाँव
या फिर कमरे में  लटके कैलेण्डर में

अब जब भी याद आता है गाँव
या
जब भी उकता जाता हूँ शहर से
 तारीखों के बहाने
देख लेता हूँ गाँव कैलेण्डर में
मिट्टी के मटके में पानी भर कर लाती  युवती
लम्बे बालों वाली ढोर चराती भोली खूबसूरत लड़की
जो कभी शैंपू  , पाउडर- क्रीम नहीं लगातीं
न ही फैशन  परेड में जाती
खेतों में निदाई करते लोग
जो नहीं जानते शटर्दे- सन्डे
शब्दों और तारों विहीन  रिश्ते
अपनत्व के रेशे - रेशे से छाई गयी झोपड़ियाँ 
हाँ यही था मेरा गाँव
जो अब
कैलेण्डर में हर महीनें अलग - अलग रंगों में
मेरे कमरे में टंगा हुआ है
जहाँ बहुत पहले पहुंचा था मै
 

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