शनिवार, 26 सितंबर 2009

दंगा और दंगे के बाद (१९९३)

गहरी संवेदना |
कला का नाम ही है
ध्वंस के खिलाफ खड़े होना |
इन चित्रों की सार्थकता ही यही है की
ये मनुष्य को मनुष्यता के लिए पुकार रहे है |
कई चित्रों में नई तकनीक प्रतीक मार्मिक |

-डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय
नाटककार , आलोचक










कबूतर
की चोंच में छुरा है
कबूतर आकाश की छाती पर है
आदमी घुटनों में मुंह छिपाए
बैठ गया है हार कर जैसे
यह अखबार की कोई खबर नहीं है
विधानसभा में गूंजता कोई सवाल
एक अदद रेखाकार की बेसाख्ता जुबान है
बेहद सफ़ेद से कागजों पर
सभ्यता की कलंक गाथा कहती हुई

-
डॉ. विजय बहादुर सिंह
कवि, आलोचक

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति--हां दो समान्तर रेखाए सुचारुरूप से चल सकतीं है>

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