मंगलवार, 29 सितंबर 2009

रेखाएं बोलती हैं

के. रवीन्द्र के रेखांकनों में मानवीय संवेदनाएं बात करती सुनाई देती हैं | रेखाओं के क्षितिज -पर से जीवन कीआकृतियाँ झांकती हैं | आकृतियाँ मनुष्य की हैं | प्रकृति की हैं | प्रकृति के भीतर जड़-चेतन की समेट इनमे है| जीवन अपनी सीमाओं में असीम उदभावनाएं लिए इतिहास पथ निर्मित करता चलता है | इतिहास के मायने यहाँअपने समय के मनुष्य की हार- जीत की स्तितियों से है | इन चित्रों में आदमी मौन दिखाई देता है, लेकिन वहसमय की भाषा बोल रहा है | दूसरे शब्दों में इन आकृतियों ने आदमी के मौनमय संघर्ष को काल के स्तर पर वाणीदी है | ये रेखा- आकार अपने भीतर बहुत कुछ छिपाए हुए सब कुछ सच -सच उजागर करते हैं | काल कीनिरन्तरता के तट पर विश्राम -घाट बनाते हैं, जहाँ बैठकर कुछ विचारणीय उपजता है | विचार और रेखाएंकहीं-कहीं एकमेव हो जाती हैं | जीवन-जगत प्रतिबिंबित हो उठता है | हम अपना ही चेहरा सामने पाने लगते हैंअपना ही हास हमें गुदगुदाता है | अपने ही आसुओं का खारापन और गर्माहट हमें और आगे बढ़ने की आद्रता देते हैंतब ये रेखांकन पुतरिया नही लगते | हम अपना ही वजूद इनमे तलाशने - पाने लगते हैं |

तुलसी कहते है -'सून्य भीती पर रंग चित्र नहीं ,तनु बिनु लिखा चितेरे ,यह बात दार्शनिक होते हुए भी ,इसमेवर्तमान चित्रकला के सूत्र आकार लेते दिखाई देते है अमूर्त कला की शाब्दिक व्याख्या की ध्वन्यात्मकता इस पदसे सुनी जा सकती है रवीन्द्र ने अपने रेखांकनों में अमूर्त का टंटा खडा करके उसके ध्वनि संसार को पाने कीकोशिश की है जिसे कहा जा सकता है कि रेखाए बोलती है रेखाए मनुष्य के कर्म को रेखांकित करती है उसके कर्मसे निपजे ललित को प्रसार देती है उसके सौन्दर्य को नदी किनारे के छतनार पेड़ की फुनगी पर बैठाती है ये रेखाएमनुष्य की जिजीविषा को चिडिया की परवाज देती है एक निस्सीम आकाश छोटी सी चिडिया नाजुक से पावंकोमल सर पंख ,और धरती की गोलाई तथा आकाश की गहरी नापने की अदम्य ,अथक अनवरत उडान रेखाएकागज पर खींची लकीरे मात्र रहकर चैतन्य बन जाती है कोई हंसता, बोलता, गाता, रोता, दौड़ता झाई मारनेलगता है कला की दुनिया में दस्तक सुनाई देने लगती है

रवीन्द्र के चित्र हल्लाबोल की तर्ज पर धमाल नही मचाते |हंगामा खडा नहीं करते |मशाल नहीं थामते| बल्किशालीनता से रेखाओ की भाषा में आदमी का सुख दुःख कहते है |ये जीवन के दर्द को रेखाओ में प्रवाहित कर उसेताकत में तब्दील करते है |दर्द को उकेरने मात्र से समस्या का हल नहीं है ,हल इसमें है की दर्द पर आदमी अपनीविजय हासिल कर ले या दर्द देने वाले का मस्तक कुचल दे |ये रेखांकन दर्द पर विजय हासिल करने वाले रेखाशिखर है |इस प्रक्रिया में रवीन्द्र को रेखाओ की भीड़ नहीं जुटानी पडती |रेखाओ और नर-मुंडो का जंगल नहीं खडाकरना पड़ता |एक ठूठ और उस पर बैठी चिडिया का चित्र इसके लिए वे पर्याप्त समझते है | विभीषिका के बीच मेंजीवन के बचाव का रेखांकन उनके पास अँधेरे में हथेली पर रखे दीपक की तरह सुरक्षित है |उनके ऐसे चित्रों मेंगरमी की धू-धू जलती शाम की बखत दूर पहाडियों पर बजती बांसुरी सुनाई देती है |यह बांसुरी सुख की नहीं हैव्यक्ति की टूटी आस्था और बिखरी क्षमता को अगोरने का स्वर है |व्यक्ति की जूझ और उसमे जीवन की अनटूटीलय दोनों समानांतर रेखांकित होती है|

मनुष्य का संघर्ष और सौंदर्य इन चित्रों में कहीं-कहीं एक साथ उभरा है |पत्थरों के ढेर पर जमती जडें और पूरे कदमें खडा पेड़ तथा पेड़ को छूने और बचाने की हुलस लिए बढ़ता हाथ इस सौंदर्य उर्जा और संघर्ष क्षमता को आँख देतेहै |दूसरी और दुसरे का हाथ भी ही जो पत्थरों के ढेर को बड़ा कर रहा है |पत्थर जमा रहा है|पत्थरों के बीच धंसतीजड़े और आकाश की हथेली पर कोंपल तथा फूलों के रंग भरने वाले वृक्ष की कुहक को मौसम देने वाला यहचित्रकार है |खिड़की का खुला होना,उस पर टिका हाथ और हाथ पर टिका सिर मनुष्य की स्वतंत्रता और विवशताकी अनथक कहानी बांचता है |रवीन्द्र मजबूर करते है नियति और कर्म के बीच खड़े आदमी की स्थिती पर सोचनेतथा उससे उबारने के सन्दर्भ में |रवीन्द्र चित्र में संकेत देते है की जड़ विहीन व्यक्ति भविष्य का उजड़ा पथ हीनिर्मित करेगा |यहाँ तक की जड़ रहते हुए भी तने से पेड़ को काटना और आदमी को उसकी प्रकृति में जिन्दा देखनाचाहता है |मनुष्य को पानी डालने सरीखा है |यह उवा चित्रकार मनुष्य को उसकी प्रकृति में जिन्दा देखना चाहता हैमनुष्य को मनुष्यता सहित पाना चाहता है |पांवो पर रखे शिथिल हाथ ,गठरी बना शरीर और कंधे पर जीवन कीआशा- आकांक्षाओ तथा कर्म से रस -रस उडान के लिए आतुर बैठी चिडिया का चित्र रात के गर्भ में दूर कहीं भोरको आमंत्रण देता है |

रवीन्द्र चौकस है ,धरती के बचाव के प्रति | वह चिंतित है,बिगड़ते पर्यावरण के सम्बन्ध में |उनके चित्र के पास एकहरी टहनी है |आकाश में उडती चिडिया है ,और दूर तक आकाश की नीलिमा को भेदती दृष्टी है | आदमी और प्रकृतिके प्रति बेखबर होती प्रवित्ति के विरोध में वे हम सबको खबरदार करते है | ओद्योगिक और व्यवसाय युग में जीवितसांसों को शुद्ध हवा के लाले पड़ रहे है मशीनों के बीच दबती सुबक और दुखती छाती की कहानी को चित्रकार आकरदेता है यहाँ उसकी रेखाए शब्दों के अर्थो से अधिक गहरे और व्यापक अर्थ धारण कर जमाने के सामने आती हैनारी की कहानी और उसकी सामाजिक स्थिति रवीन्द्र से छुपी नहीं है |नारी का उपयोग उनका चित्रकार मनुष्यकी पशुता को तथा उसकी आदिम भूख को उजागर करने के लिए नहीं करता है , बल्कि नारी को उसके सम्पूर्णसामाजिक महत्त्व और दाय के साथ महिमा मंडित करता है |नारी के विवशता के अनेक चित्रों में रेखाए पाई जातीहै |लेकिन इनमे कहीं भी मांसलता है और ही व्यावसायिकता |यह चित्रकार की कूची की पवित्र झिरप का धोतक है |

रवीन्द्र के चित्र कहीं-कहीं एक ही अनटूटी रेखा में आकार ले लेते है | कहीं-कहीं रेखाओ के अन्त्गुरम्फ्न आकृतिबनाते है | बीच-बीच में स्याही का भराव भी पुष्टता और पृष्ठभूमि के ठोसपन के लिए कर लेते है |चित्र में मनुष्य कोया अपेक्षित वस्तु को रेखांकन के माध्यम से बना देने के बाद वे परिवेश को छोटी-छोटी गोल-गोल रेखाओ से भरतेहै | जो अन्यंत्र चित्रों में देखने को कम मिलती है |कहीं एक ही रेखा से पूरा चित्र बना देते है बाकी फलक कोरा रहताहै | अनंत सृष्ठि और उसके बीच निपट खडा मनुष्य |बाकी फलक कोरा रहता है |ज्यादातर चित्र मूर्त है | बात करतेहै | आदमी की कहानी आदमी से रेखाओ की चौपाल पर बैठकर सुनाते है |इस चित्रकार में दूर तक आगे जाने कीसम्भावनाये है|

मै रेखांकनों का शास्त्र नहीं जानता |


डॉ. श्रीराम परिहार
अगहन सुदी
संवत २०५३

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