शनिवार, 19 दिसंबर 2009




















जहरीली होती जा रही है
आस्थाएँ
टूटते जा रहे हैं
सपनों के बंध

संगीनों के साये में
सायं -सायं करता जंगल

गाँव की सरहदें
सिमट कर रह गयी हैं
दरवाजों तक
घर का कोना-कोना
तरस रहा है
उजाले का एक टुकडा
बस्
छू भर लेने के लिए

नष्ट-भ्रष्ट
आदम विचारों की बंदूकें
भावनाओं के काँधे से
दागती हैं गोलियां

धुप में झुलसीं
सिसकती-हांफती हवाएं
अवसादों से सराबोर
साल वृक्ष
दे नहीं पाते छावं का एक टुकडा

सारा जंगल
बस्
सायं-सायं
भायं-भायं
ठायं-ठायं

बस्
बहुत हुआ
रौशन कर दो झरोखों को
शायद
पगडंडी नजर आने लगे
--के.रवींद्र

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