रविवार, 6 नवंबर 2011

" भूपेन हजारिका "
















देखा है तुमने
हरित  लबादा ओढ़े
जलती हुई धरती पर
गर्मियों में लू  के थपेड़े खाते
 पलाश का जंगल
जैसे दुर्दिनों में भी
रच रहा हो सपनें
देखा है तुमनें
बड़े घनघोर जंगल जब
नंगे खड़े कोसते रहते है
आसमान को
तब मुस्कुराता हुआ पलाश  ही
पहुंचता है  धरती को ठंडक  
मगर आदमी ?
पलाश नहीं है आदमी
वह दुर्दिनों में हो जाता है
नंगा जंगल
ढूंढता रहता है छाँव का एक टुकड़ा
माथे पर रखे हाथ
या ताकता रहता है आसमान
तब
तब कहीं एक आदमी
हाँ कहीं एक
भूपेन हजारिका
हो जाता है पलाश
जो ताकता नहीं आसमान
ढूंढता नहीं छाँव का टुकड़ा
केवल हो जाता है पलाश
दुर्दिनों में भी चतुर्दिक तोड़ता हुआ सन्नाटा
और शांति फैलता हुआ
दुश्चिंताओं से मुक्त
पलाश की तरह
जिसने बचा रखा है
जंगल और जंगल का नंगा पन

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