रविवार, 8 नवंबर 2009


मैंने तुम्हे कई बार देखा था
बौराए आम के वृक्ष के नीचे
गिलहरियो की तरह फुदकते /
शायद इसी उम्मीद में की
शीघ्र अमियाँ लगेंगी /
मैंने तुम्हे सूंघा था कई बार /
मुरईधोवा [एक पहाडी नदी ] के रास्ते में
जब जाते हुए ।
महका जाते थे राई के फूलों की महक से
रास्ते की हवाओं को /
सुना है तुमने सारी मर्यादायों को ताक पर रख दिया था /
तुम्हारे लिए मर्यादाएं ,
शायद इसीलिए थीं /
तब
मै भी भ्रम पाले हुआ था /
नहीं ,
ढेर सारे भ्रमो को /
भ्रमो को पालना नपुंसकता हो सकती है ,
फ़िर भी मैंने पाला /
आज मोतियाबिंद वाली आंखों से देखता हूँ
आम के नीचे भी,
यह जानते हुए कि
शुन्य के अलावा
कुछ भी तो नहीं है शेष /
फ़िर भी मुझे सब कुछ दीखता है /
उसी तरह ,
सब कुछ सूंघता हूँ अब भी /
गिलहरी सा फुदकना ।
हवाओं में राई के फूलों की महक /
सब कुछ उसी तरह ,
सब कुछ वैसा ही /
जब की सब कुछ बदल गया है
फ़िर भी केवल ,
मेरा भ्रम पालना नहीं बदला/
शायद ,
भ्रम को पालने का भ्रम ही जीवन हो /
जो जिया तो जाता है ,
संबंधो को नाम देकर ,
ओढे हुए
एक खूबसूरत लबादे की तरह ,
जो भीतर से तार-तार हो चुका हो /
आज ,
सैकड़ो किस्म के फूलों से सजा है ,
मेरा बागीचा/
मगर वे दे नहीं सकते
सारे के सारे फूल मिलकर भी ,
राई के फूलों की महक ,
जो मन को बांधती थी /
शायद उम्र फ़िर से लौटे
और आदमी को जिए
--के .रवीन्द्र

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