शनिवार, 14 नवंबर 2009

गाँव












चाहकर भी नहीं
लाँघ पाया देहरी, चौखट तो दूर /
कब बैठेगा कौवा मुंडेर पर,
किसी के आने का देता सन्देश /
बिसर गया,
गोबर,मिट्टी की गंध /
बह गयी आंगन की सारी मिट्टी,
कब आएगा कोई,
कि फिर लीपा जाए आँगन /

एक बार फिर सोचा
चलो "घोर-घोर रानी इत्ता-इत्ता पानी"खेलते
खो जाएँ
उन्ही धान के खेतों के बीच बहती
सूखी "मुरई धोवा"नदी [एक पहाड़ी नदी] के रेत में/
पोर-पोर में गठिये का दर्द लिए,
या फिर
पुराने जंग खाए रोड रोलर के ऊपर
जा बैठूं ,
आँखों में मोतियाबिंद की झिल्ली ओढे
खिड़की को ताकते,घंटो /
मगर सूखे पत्तों की तरह उड़कर
सारी इच्छाएं
बिखर जाती है इधर-उधर
खड़खडाती /


कैसी यह धरती,कैसा आकाश ,
इंच -इंच में बदलता इसका स्वरूप /
कहीं बूढी तो कहीं किशोर /
क्यों नहीं होती इच्छाएं बूढी ?

क्यों नहीं मानता मन
जो दिखाती है आँखें /
वह अब भी देखना चाहता है ,
वही,
झरबेरी के लाल-लाल फल ,
चने के खेत,
महूआरी सुबह का सूरज,
रम्भाती गायों के बीच उडती
गौधूली की धूल /
--के.रवींद्र

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